प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
– फोटो : एएनआई (फाइल)
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एक बार फिर तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस के मौके पर 11वीं बार लाल किले से तिरंगा फहराते हुए जनता को संबोधित किया। उन्हें इस गौरव ने इंदिरा गांधी के बराबर ला खड़ा किया है, जिन्होंने 1966 से 1976 तक लगातार लाल किले से राष्ट्रीय ध्वज फहराया और देश को संबोधित किया था। जबकि उनके पिता और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लगातार 17 बार लाल किले से ध्वाजरोहण करके राष्ट्र को संबोधित किया था। अब तक देश के हर प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने संबोधन में अपनी सरकार की उपलब्धियों देश की भावी दिशा और अपने राजनीतिक एजेंडे को जनता के सामने रखा है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने 98 मिनट के भाषण में विस्तार से अपनी दस साल की दोनों सरकारों की उपलब्धियों और भविष्य में विकसित भारत की अपनी परिकल्पना के साथ साथ अपने वैचारिक एजेंडे को भी साफ करते हुए यह संदेश दे दिया है कि भले ही वह गठबंधन सरकार चला रहे हैं लेकिन भाजपा अपने वैचारिक एजेंडे पर काम करना जारी रखेगी गठबंधन के दबाव में पीछे नहीं हटेगी और अगर कभी भविष्य में सरकार और विचार में किसी एक को चुनने की नौबत आई तो वह विचार को चुनेंगे।
पिछले दस सालों के दौरान जब नरेंद्र मोदी लाल किले से झंडा फहराते थे तब वह उस भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री होते थे जिसे अपने बलबूते शानदार बहुमत हासिल था। लेकिन इस बार मोदी ने एक गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर तिरंगा फहराया, जिसे अपनी सरकार के लिए सहयोगी दलों के सहारे की जरूरत है। इस बार उन्हें बाहर के साथ साथ भीतर की भी चुनौतियों से निबटना है। प्रधानमंत्री मोदी के लाल किले के भाषण से ये साफ हो गया है कि भले ही उनकी सरकार सहयोगियों के समर्थन से चल रही है लेकिन भाजपा अपने वैचारिक एजेंडे को लागू करने की पूरी कोशिश करेगी भले ही उसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े और सहयोगी दल अगर अपना रास्ता अलग करते हैं तो मोदी अपने वैचारिक मुद्दों के साथ जनता के बीच जाने में कोई संकोच नहीं करेंगे। अपने भाषण के आखिरी हिस्से में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाते हुए उसे सेक्युलर सिविल कोड कहा और एक राष्ट्र एक चुनाव को समय की जरूरत बताते हुए उस दिशा में बढ़ने की बात कही है,उससे साफ संकेत है कि आने वाले दिनों में सरकार इन दोनों मुद्दों पर काम शुरु करेगी।तब सहयोगी दलों को तय करना होगा कि उन्हें क्या करना है।
लोकसभा चुनावों के नतीजों से विपक्षी इंडिया गठबंधन का मनोबल बढ़ा हुआ है इसका नजारा संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण और बजट सत्र की बैठकों में सरकार पर विपक्ष के हमलों में साफ दिखाई दिया। भले ही नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की थी और पिछले स्वतंत्रता दिवस पर लाल किला पर अपने भाषण में जो कहा था कि अगले साल वही स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले पर तिरंगा फहराएंगे, के अपने कथनों को सही साबित कर दिया है लेकिन यह भी सही है कि जिस आजादी और मनमर्जी से उन्होंने दस साल अपनी सरकार चलाई कहीं न कहीं अब उनके सामने गठबंधन सरकार चलाने की चुनौती है।जिस तरह लोकसभा में वक्फ संशोधन विधेयक को पहले पेश किया गया फिर सहयोगियों के आग्रह (दबाव) पर उसे संसद की संयुक्त समिति में भेज दिया गया, यह बताता है कि सरकार पर सहयोगी दलों का दबाव अब काम कर रहा है जबकि पिछले दस सालों में सहयोगी दल पूरी तरह भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की दया पर निर्भर थे। अनुसूचित जाति जनजाति के आरक्षण में उप श्रेणी और क्रीमी लेयर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी जिस तरह सरकार ने मंत्रिमंडल में प्रस्ताव पारित करके उससे असहमति जताई है, वह भी गठबंधन सरकार की विवशताओं का एक और संकेत है। केंद्रीय बजट में जिस तरह आंध्र प्रदेश और बिहार को दिल खोलकर परियोजनाएं और उनके लिए हजारों करोड़ रूपए का आवंटन किया गया है उससे भी यह संदेश गया कि सरकार अपने सहयोगी दलों को संतुष्ट रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। विपक्ष ने तो इसे मुद्दा बनाते हुए बजट को सरकार और कुर्सी बचाने वाला बजट तक कह दिया है।जबकि पिछले दस वर्षों के बजट में किसी भी राज्य विशेष को खुश करने की कोई कोशिश दिखाई नहीं दी थी। हाल ही में भाजपा अध्यक्ष केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा के घर पर एनडीए गठबंधन की बैठक हुई जिसमें भाजपा के सभी सहयोगी दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया। इस बैठक ने अटल बिहारी वाजपेयी युग के एनडीए की याद दिला दी जब ऐसी बैठकें अक्सर होती थीं। लेकिन 2014 से अगले दस सालों तक अनौपचारिक चायपान के लिए भी एनडीए की कोई बैठक हुई हो याद नहीं पड़ता। क्योंकि तब भाजपा को अकेले दम पर बहुमत हासिल था और उसे ऐसी बैठकों की कोई जरूरत नहीं थी।लोकसभा चुनावों से पहले जब विपक्षी इंडिया गठबंधन की बैठकों के दौर शुरु हुए तब उसके जवाब में जरूर भाजपा ने अपने 38 सहयोगी दलों की एक बैठक बुलाई थी जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने संबोधित किया था।