कॉप29 सम्मेलन।
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अज़रबैजान के बाकू में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अमीर देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए वित्तीय सहायता पर ध्यान नहीं देने पर निराशा जताई है। भारत ने गुरुवार को कहा कि वह विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त (वित्तीय सहायता) से ध्यान हटाकर, केवल उत्सर्जन में कमी लाने पर ध्यान केंद्रित करने के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं करेगा। बयान में कहा गया कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में अगर वित्त, प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण में पर्याप्त सहायता नहीं मिलती, तो इसका प्रभाव गंभीर होगा।
भारत की जलवायु सम्मेलन में बोलीं लीना नंदन
भारत की पर्यावरण और जलवायु सचिव लीना नंदन ने कहा कि यह निराशाजनक है कि जलवायु शमन (उत्सर्जन में कमी) पर जोर दिया जा रहा है जबकि शमन के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ देशों द्वारा शमन पर जोर देने का उद्देश्य केवल जलवायु वित्त की जिम्मेदारी से ध्यान भटकाना है।
उन्होंने कहा कि शमन की निरंतर बातचीत का कोई मतलब नहीं है जब तक कि जलवायु क्रियाओं को जमीनी स्तर पर करने के लिए आवश्यक सक्षमता द्वारा समर्थित न हो। उन्होंने कहा कि वित्त नए एनडीसी के लिए सबसे महत्वपूर्ण सक्षमकर्ता है, जिसे हमें तैयार करने और लागू करने की आवश्यकता है।
विकासशील देशों ने नहीं दिया वित्तीय सहायता का प्रस्ताव
वहीं इस मामले में संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन के अनुसार औद्योगिक देशों को विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने और परिवर्तन करने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करनी चाहिए। लेकिन कुछ विकसित देशों ने बिना वित्तीय सहायता का प्रस्ताव दिए विकासशील देशों से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने की उम्मीद जताई है।
सम्मेलन में भारत का प्रस्ताव
भारत ने कहा कि जलवायु क्रियाओं को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए जरूरी वित्तीय सहायता की बिना शमर्त आपूर्ति के शमन पर लगातार चर्चा का कोई मतलब नहीं है। बता दें कि भारत ने 2025 से प्रत्येक वर्ष 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सार्वजनिक वित्तीय सहायता का प्रस्ताव किया।
क्या है विकाशील देशों का मत
वहीं इस मामले में विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उन्हें प्रति वर्ष कम से कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत है, जो 2009 में किए गए 100 बिलियन डॉलर के वादे से कहीं अधिक है। हालांकि, विकसित देशों ने अभी तक कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिया है, लेकिन यूरोपीय संघ के देशों ने प्रति वर्ष 200-300 बिलियन डॉलर के वित्तीय लक्ष्य पर चर्चा की है। इसके साथ ही विकासशील देशों का यह भी मानना है कि अधिकांश वित्तीय सहायता सीधे विकसित देशों के सरकारी खजाने से आनी चाहिए न कि निजी क्षेत्र से।