बाढ़ के कारण बिहार में त्रासदी एक बार फिर मची हुई है। क्या होगा कोसी-मेची प्रोजेक्ट से फायदा, जानें।
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विस्तार
बिहार में बहु-चर्चित कोसी-मेची लिंक नहर एकाएक चर्चा में आ गई है क्योंकि वर्षों की प्रतीक्षा के बाद इस वर्ष के बजट में इसके निर्माण की घोषणा हो गई और इस साल बाढ़ भी फिर पुराने रूप में सामने आ गई है। केंद्र सरकार 2004 से ही नदी जोड़ योजना पर गंभीरतापूर्वक विचार शुरू कर चुकी थी, लेकिन बिहार सरकार ने इस पर पहल 2006 में की। इसी के साथ इस लिंक पर केंद्र से विचार करने के लिए अनुरोध किया गया। इस लिंक नहर के निर्माण से कोसी-मेची क्षेत्र में कृषि का विकास होगा। नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथॉरिटी ने 2010 में इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बिहार सरकार को दी, जो अंतिम रूप में केन्द्रीय जल आयोग की नियमावली के पालन का ख्याल रखते हुए सुधार के बाद वापस मिली। उसी के बाद से इस योजना के क्रियान्वयन पर गंभीरतापूर्वक विचार शुरू हुआ और अब इसे स्वीकृति मिल गई है। केंद्र की मौजूदा सरकार से धन मिलने का रास्ता भी खुल गया है। इस परियोजना के निर्माण से बाढ़ नियंत्रण के साथ-साथ कोसी-मेची के दोआब में 2.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर अतिरिक्त सिंचाई होने लगेगी। इस लिंक के निर्माण के बाद अररिया (69 हजार हेक्टेयर), किशनगंज (39 हजार हेक्टेयर), पूर्णिया (69 हजार हेक्टेयर) और कटिहार (35 हजार हेक्टेयर) जिलों में अतिरिक्त सिंचाई मिलने लगेगी और इसी से बाढ़ की समस्या के हल होने का सपना भी देखा जाने लगा है। इस योजना के क्रियान्वयन से कृषि उपज में वृद्धि होने की आशा व्यक्त की जा रही है और रोजगार की संभावनाएं बढ़ेंगी।
परियोजना रिपोर्ट में यह बात जरूर स्पष्ट कर दी गई है कि इस नदी जोड़ योजना से केवल खरीफ के मौसम में ही इस दोआब में सिंचाई की व्यवस्था हो सकेगी, क्योंकि रबी और गरमा के मौसम में इस नहर में पानी मिल पाएगा या नहीं, यह तय नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार पानी की निश्चित सप्लाई के लिए व्यवस्था तभी हो पाएगी, जब नेपाल में बराहक्षेत्र में कोसी पर हाई डैम का निर्माण हो जाएगा। हम यहाँ जरूर याद दिलाना चाहेंगे कि नेपाल में हाई डैम बनाने का प्रस्ताव सर्वप्रथम आज से 87 साल पहले 1937 में किया गया था और तभी से यह बांध चर्चा और अध्ययन में बना हुआ है। यह बांध कब बनेगा, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
6300 करोड़ रुपये की योजना
पहले इसके लागत खर्च की बात कर लेते हैं। इस योजना की लागत जो शुरू-शुरू में 2,900 करोड़ रुपये थी, वह बिहार रारकार को अंतिम रिपोर्ट मिलने तक 4,900 करोड़ रुपये हो गई और अब इसका मूल्य लगभग 6,300 करोड़ रुपये बताया जा रहा है। केंद्र का सुझाव है कि अपनी तरफ से कुल लागत का 60 प्रतिशत केंद्र वहन करेगा और 40 प्रतिशत खर्च राज्य को करना होगा। बिहार का कहना है कि केंद्र इसमें 90 प्रतिशत राशि का सहयोग करे और राज्य 10 प्रतिशत राशि अपनी तरफ से दे। यह भी कहा जाता है कि केंद्र 30 प्रतिशत राशि राज्य को ऋण के तौर पर देने का सुझाव दे सकता है। यह पूरा मामला अभी विचाराधीन बताया जा रहा है। इस योजना में पूर्वी कोसी मुख्य नहर (लंबाई 41.30 कि.मी.) को 76.2 कि.मी. बढ़ा कर मेची नदी में मिला दिया जाएगा, जिससे कोसी के प्रवाह को थोड़ा-सा घटाने का लाभ मिलेगा। नहर के अंत में मेची नदी में केवल 27 क्यूसेक पानी ही दिया जा सकेगा, जिससे कोसी में बाढ़ से राहत मिल सकती है। यह रिपोर्ट मान कर चलती है कि कोसी और मेची में एक साथ बाढ़ शायद नहीं आएगी, लेकिन दुर्योग से ऐसा हुआ तो योजना की सार्थकता पर सवाल उठेंगे। हमें विश्वास है कि योजना बनाने वाले विद्वानों ने इस पर जरूर सोचा होगा। परियोजना रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि इस योजना से गैर-मानसून महीनों को छोड़ कर रबी और अन्य फसलों के लिए पानी तब तक नहीं दिया जा सकता है, जब तक कोसी पर बीरपुर के 56 किलोमीटर उत्तर नेपाल में नदी पर नेपाल में बराहक्षेत्र में 269 मीटर ऊँचे हाई डैम का निर्माण नहीं हो जाता।
बराहक्षेत्र बाँध का प्रस्ताव पहली बार आज से 87 साल पहले 1937 में किया गया था। 22 सितंबर, 1954 के दिन बिहार विधानसभा में अप्रोप्रिएशन बिल पर चल रही बहस में भाग लेते हुए अनुग्रह नारायण सिंह ने कहा था- “अभी दो-तीन वर्षों से इसकी जाँच हो रही थी कि कोसी नदी पर एक बाँध बाँधा जाए, जो 700 फुट ऊँचा होगा और इस जाँच पर बहुत-सा रुपया खर्च हुआ। तब मालूम हुआ कि इसमें 26 मील (42 किलोमीटर) की एक झील बनेगी, जिसमें कोसी का पानी जमा होगा और पानी जमा होने से बाढ़ नहीं आएगी… लेकिन इसके पीछे इस बात पर विचार किया गया कि अगर वह 700 फुट का बाँध फट जाये तो उसमें जमा पानी से सारा बिहार और बंगाल बह जाएगा। सबकुछ तबाह-बर्बाद हो जाएगा।” कुछ इसी तरह की बात लोकसभा में बराहकक्षेत्र बाँध का नाम लेकर एन.वी. गाड़गिल ने 11 सितंबर, 1954 को कही थी, जिसमें उन्होनें विश्व में बाँधों पर भूकंप के प्रभाव की चर्चा की थी। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार ने इन बयानों का संज्ञान जरूर लिया होगा।
पूर्वी कोसी मुख्य नहर
जहाँ तक कोसी की पूर्वी मुख्य नहर का सवाल है, उसकी पेटी में बालू का जमाव तभी से शुरू हो गया था जब 1963 में पानी छोड़ा गया और सन् 2000 आते-आते नहर को बन्द करने की नौबत आ गई थी। उस समय यह नहर अपनी फुल सप्लाई डेप्थ तक बालू से भर चुकी थी और उसमें पानी देना मुश्किल हो रहा था। तब नहर के बालू की सफाई की बात उठी। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन इस बालू को कहाँ फेंकेंगे- इसका सवाल उठा। वहाँ काम कर रहे इंजीनियरों का कहना था कि नहर से जब तक बालू नहीं हटेगा, तब तक नहर बेकार बनी रहेगी और उसमें पानी नहीं दिया जा सकेगा। जैसे-तैसे 2004 के अंत में बालू हटाने का काम शुरू हुआ, जिसकी अनुमानित लागत 54 करोड़ रुपये थी। नहर सफाई का यह काम 4,000 हजार ट्रैक्टरों के माध्यम से जून 2005 तक चला। इसका नफा-नुकसान क्या हुआ, वह तो सरकार को मालूम ही होगा लेकिन नहर के दोनों किनारों पर बालू के पहाड़ जरूर तैयार हो गए थे। नहर के इर्द-गिर्द सरकार की ही जमीन थी, इसलिए उस समय तो बालू को वहीं नहर के बगल में डंप कर दिया गया लेकिन दुबारा यह काम करना पड़ेगा तो नहर का बालू किसानों की जमीन पर डंप किया जाएगा- यह तय है। इस बालू काण्ड की जाँच बिहार विधान सभा की 50वीं और 53वीं प्राक्कलन समिति की रिपोर्ट में दर्ज हैं, जिसमें सरकारी धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार की नामजद रिपोर्टें दर्ज थीं। 53 वीं रिपोर्ट कहती है कि, ‘… इस तरह मुख्य पूर्वी कोसी नहर के बीरपुर डिवीजन में राजकीय कोष के अपव्यय और अपहरण के कतिपय मामलों का ही उल्लेख किया गया है, यों विशेष छानबीन पर हजारों उदाहरण इस प्रमंडल में और मिलेंगे।’ हम उम्मीद करते हैं कि विस्तृत परियोजना तैयार करने वालों को इस घटना के बारे में पता जरूर होगा और आपदा में अवसर खोजने वाले लोगों पर इस बार जरूर नजर रखी जाएगी।
जमीन का ढाल और नदियों का नहर पर लम्बवत प्रवेश
बीरपुर से माखनपुर (किशनगंज) के बीच, जहाँ यह नहर मेची में मिल कर समाप्त हो जाएगी, इस 117 किलोमीटर के बीच की दूरी में इस प्रस्तावित नहर को कई नदियाँ काटती हुई पार करेंगीं। इनमें परमान, टेहरी, लोहंदरा, भलुआ, बकरा, घाघी, पहरा, नोना, रतुआ, कवाल, पश्चिमी कंकई और पूर्वी कंकई आदि मुख्य हैं। छोटे-मोटे नालों की तो कोई गिनती ही नहीं है। यह सभी नदी-नाले उत्तर से दक्षिण दिशा में बहते हैं जबकि अपने प्रस्तावित विस्तार सहित कोसी-मेची लिंक पश्चिम से पूर्व दिशा में बहेगी। पूर्वी मुख्य नहर तो लगभग पूरी की पूरी इसी दिशा में चलती है, जबकि प्रस्तावित नई नहर में थोड़ी-बहुत गुंजाइश बाकी रहती है क्योंकि वह आगे चल कर कुछ दक्षिण की तरफ मुड़ जाती है। जाहिर है पानी की निकासी में दिक्कतें आएंगी। प्रस्तावित 117 किलोमीटर नहर उत्तर दिशा से आ रहे पानी की राह में रोड़ा बनेगी और नहर के उत्तरी किनारे पर जल-जमाव बढ़ेगा और उस क्षेत्र की खेती पर इसका अवांछित प्रभाव पड़ेगा।
पूर्वी नहर से इस अटके और नहर तोड़ कर निकलते हुए पानी से सुपौल जिले के बसंतपुर और छातापुर और अररिया जिले के नरपतगंज प्रखण्ड के कितने गाँव बरसात के मौसम में डूबते-उतराते रहते हैं। यह पानी पश्चिम में बिशुनपुर से लेकर बलुआ (डॉ. जगन्नाथ मिश्र- भूतपूर्व मुख्य मंत्री और केन्द्रीय मंत्री का गाँव), चैनपुर और ठुट्ठी, मधुरा से लेकर पूरब में बथनाहा तक चोट करता है और जल-जमाव की शक्ल में लम्बे समय तक बना रहता है। इस दौरान यहाँ के लोग भारी तबाही झेलते हैं।
कुछ साल पहले ठुट्ठी के पास धानुकटोली के गाँव वालों ने नहर को काट दिया था। यह लोग जानते थे कि सोमवार के दिन कटैया बिजली घर को फ्लश करने के लिये नहर बंद रहती है और उसके पानी का कोई खतरा नहीं रहता है। इसलिए नहर काटने के लिये सोमवार का दिन सबसे उपयुक्त रहता है। होता यह है कि फुलकाहा थाने (नरपतगंज प्रखंड) के लक्ष्मीपुर, मिर्जापुर, मौधरा, रग्घूटोला, मिलकी डुमरिया, नवटोलिया, मंगही और संथाली टोला आदि गाँवों में नहर से अटके पानी की निकासी कजरा धार पर बने साइफन से होती है। इस साइफन की पेंदी ऊंची है, इसलिए यह सारे पानी की निकासी नहीं कर पाता है। नहर के किनारे पानी लग जाने से मिर्जापुर में तो नहर अपने आप टूट गई, मगर इसके बाद भी नहर के उत्तरी किनारे के किसानों की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। उधर के लोग पानी की निकासी के लिए नहर को काटने के लिए आ गये। नहर के दक्षिण में नरपतगंज के गढ़िया, खैरा, चन्दा और धनकाही आदि गाँव पड़ते हैं। नहर कट जाने की स्थिति में यह लोग मुसीबत में पड़ते। नहर एक तरह से सीमा बन गई और दोनों तरफ कर योद्धा अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ आमने–सामने आ गये। उत्तर वाले लोग नहर काटने के लिये और दक्षिण वाले उसे रोकने के लिए। झगड़ा-झंझट बढ़ा पर नहर काट दी गई। मामला-मुकदमा हुआ, पंचायत बैठी। अफसरान आये तब जा कर कहीं समझौता हुआ और दोनों पक्षों ने आश्वासन दिया कि आगे से नहर नहीं काटेंगे। हम विश्वास करते हैं कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति अब नहीं होगी।
कुसहा तटबन्ध की दरार और मुख्य कोसी पूर्वी नहर-2008 से मिली सीख
2008 में जब कुसहा में कोसी का पूर्वी तटबंध टूटा था, तब इस नहर का क्या हुआ था वह जानना भी दिलचस्प होगा। 18 अगस्त, 2008 के दिन कोसी का पूर्वी तटबंध नेपाल के कुसहा गाँव के पास टूट गया। इस स्थान पर कोसी पूर्वी तटबंध के काफी पास आ गई थी और उसने वहाँ के स्पर पर 5 अगस्त के दिन से ही चोट करना शुरू कर दिया था। विभागीय अकर्मण्यता के कारण उस बाँध को टूट जाने दिया गया, क्योंकि बाँध के टूटने में 13 दिन का समय कम नहीं था कि तटबंध को बचाया न जा सके। इतना समय किसी भी दुर्घटना से निपटने के लिए कम नहीं होता। बाँध जब टूटा तो उस दरार से निकला पानी बिरपुत पॉवर हाउस की ओर भी बढ़ा और उसने 13 किलोमीटर पर मुख्य पूर्वी कोसी नहर को तोड़ दिया। कोसी की 15 किलोमीटर चौड़ी एक नई धारा बन गई और वह पानी जहाँ-जहाँ से गुजरा, उसे तहस-नहस कर दिया। चारों तरफ तबाही मची और कम से कम 25 लाख लोग इस नई धारा के पानी की चपेट में आए। इस बाढ़ की मार कटिहार तक के लोगों ने भोगी थी। हम विश्वास करते हैं कि कोसी-मेची लिंक योजना बनाने वाले तकनीकी समूह को इस घटना की जानकारी जरूर दी गई होगी और उन्होनें इसका संज्ञान लिया होगा और एहतियात बरती होगी।
कोसी-मेची लिंक नहर की परियाजना रिपोर्ट यह स्वीकार करती है कि गंगा और महानंदा के क्षेत्र में कुछ इलाका जल–जमाव से ग्रस्त है, लेकिन इसका कारण किसानों द्वारा क्षेत्र का अतिक्रमण है इसलिए पानी की निकासी में असुविधा होती है। अब लिंक नहर को पार करके पानी को उस पार पहुँचाने की व्यवस्था कर दी गई है। यही काम अगर कोसी पूर्वी मुख्य नहर के निर्माण के समय कर दिया गया होता तो आज हमें यह सब बातें कहनी नहीं पड़तीं। फिर भी हम विश्वास करते हैं कि यह काम इस बार जरूर किया जाएगा।
रिपोर्ट यह भी सुझाव देती है कि विस्थापितों का पुनर्वास प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। हमें इस बात का दु:ख है कि कोसी परियोजना का काम 14 जनवरी, 1955 के दिन शुरू किया गया था और वहां के विस्थापित अभी भी अपने पुनर्वास के लिये संघर्ष कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि इस बार विभाग अपनी बात जरूर याद रखेगा।
– दिनेश मिश्र