मशहूर लेखक-निर्देशक सागर सरहदी चार पांच नौजवान कलाकारों के साथ एक बार जयपुर रेलवे स्टेशन पर उतरे तो एक युवती तेजी से भागती हुई आई और इन लड़कों में से एक का ऑटोग्राफ लेकर चली गई। सागर सरहदी बोले, “मैंने ‘कभी कभी’, ‘सिलसिला’, ‘चांदनी’, ‘नूरी’ जैसी फिल्में लिखी, मुझे नहीं पूछा और इससे ऑटोग्राफ लिया जा रहा है!” ये बात उन दिनों की है जब उभरते कलाकार संजीव तिवारी ने डीडी मेट्रो पर प्रसारित होने वाला रियलिटी शो ‘सुपरस्टार’ जीता था। सिद्धार्थ जाधव इसके रनर अप थे और विनीत सिंह प्रतिभागियों में से एक। तब से संजीव तिवारी तमाम धारावाहिकों में नजर आते रहे लेकिन ‘सुपरस्टार’ जीतने के बाद जिस मौका का वादा उनसे टिप्स म्यूजिक कंपनी न किया था, वह कभी पूरा नहीं हुआ। संजीव अपनी पत्नी राखी के साथ मिलकर इन दिनों अंग्रेजी कार्यक्रमों का हिंदी अनुवाद करते हैं और उनकी डबिंग करते हैं। इस बार के अपना अड्डा स्टार हैं यही संजीव तिवारी। उनके संघर्ष की कहानी, उन्हीं की जुबानी…
पिता के साथ भटकता रहा बचपन
मेरी हाई स्कूल तक की पढ़ाई ओबरा इंटरमीडिएट कॉलेज ओबरा, सोनभद्र से हुई। पिताजी गिरिवरधारी तिवारी यूपी के बिजली विभाग में काम करते। उनका तबादला जौनपुर हो गया तो इंटर मैंने पब्लिक इन्टर कॉलेज, केराकत जौनपुर से किया। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने इलाहाबाद (अब प्रयागराज) आया और हरिश्चंद्र महाविद्यालय, वाराणसी से स्नातक किया। हम लोग पांडेपुर, वाराणसी में 1989 से रहते आ रहे हैं। पिछले साल पिताजी के देहांत तक सभी लोग वहीं रहते थे। फिर माताजी भाई के पास झारखंड आ गई। बनारस में मझले भैया का परिवार रहता है। मेरी पत्नी राखी भी कलाकार हैं और वह भी डबिंग व ट्रांसलेशन का काम करती हैं।
दिल्ली में रंगमंच बना पहली पाठशाला
मुंबई आने से पहले मैंने दिल्ली में खूब रंगमंच किया। सबसे पहला ग्रुप था नटखट। उसी ग्रुप से पहला नाटक ‘आज अपना भी सच लगा झूठा’ किया जिसके निर्देशक थे राजेश तिवारी। मैंने इसमें एक आतंकवादी और एक पुलिस के सिपाही की छोटी से भूमिका की थी। पीयूष मिश्रा, भानु भारती, बी एम शाह जैसे निर्देशकों के साथ भी काम किया। ‘ना होता मैं तो क्या होता’ नाटक में मैंने मिर्जा गालिब का मुख्य किरदार किया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की परीक्षा भी मैंने पास की लेकिन चार दिन की कार्यशाला के बाद मेरे चयन नहीं हो सका। और, मैं मुंबई आ गया।
छोटे परदे ने बना दिया ‘सुपरस्टार’
डीडी मेट्रो के शो ‘सुपरस्टार’ का विजेता बनना मेरी शुरुआती सबसे बड़ी कामयाबी थी। विजेता बनने के बाद ऐसा लग रहा था अब मंजिल दूर नहीं। मुंबई मे नया नया आया था, यहां की हकीकत से वास्ता नहीं था। हालांकि, इस शो में काम करने का अनुभव बहुत ही शानदार था। केन घोष, मिलन लूथरिया और हंसल मेहता उसके जज थे। विनीत सिंह और सिद्धार्थ जाधव जैसे अभिनेताओं ने भी इसमें हिस्सा लिया था। पूरे इंडिया का विनर बनने के बाद लोगों मे मेरी काफी पहचान बन गई थी। लोग रुक कर मेरा ऑटोग्राफ तक मांगने लगे थे लेकिन वक्त के साथ सब धुल गया। मुंबई में हर ग्यारह महीने पर घर बदलने की प्रक्रिया में मेरे बहुत से जरूरी कागजात, फोटोग्राफ्स और चीजें गायब होती चली गईं। स्टार नेटवर्क ने डीडी मेट्रो की चैनल नाइन द्वारा बनाई पूरी लाइब्रेरी खरीद ली थी, लेकिन इस कार्यक्रम का कहीं कोई डिजिटल वजूद भी अब नहीं मिलता।
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तब करवट बदलने को भी जगह नहीं थी
मुंबई के शुरुआती दिन मैं कभी नहीं भूल सका। 1 फरवरी 2000 को पश्चिम एक्सप्रेस से बोरीवली स्टेशन उतरा और सीधा दोस्तों के पास गोकुलधाम, गोरेगांव ईस्ट चला गया। एक महीना उन्हीं के साथ रहा। फिर हम चार दोस्तों ने मिल कर वनराई में कमरा लिया। कमरे इतने छोटे थे कि हम चारों जब अपनी चटाई बिछा कर लेटते थे तो सोने के बाद हमें करवट बदलने के पहले भी सोचना होता था। काम की जहां तक बात है तो मैं मुंबई पहुंचने के अगले ही दिन ही पृथ्वी थिएटर गया और वहां पंडित सत्यदेव दुबे की थिएटर वर्कशॉप में शामिल हो गया। उनके साथ बहुत वक्त बिताया। उनके ग्रुप में उस वक्त मानव कौल, कुमुद मिश्रा, प्रमोद पाठक जैसे तमाम रंगकर्मी थे।
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